Saturday, September 14, 2013

हिंदी दिवस पर विशेष

हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी १४ सितम्बर आते ही हिंदी दिवस मनाया जायेगा, हिंदी भाषा के गौरवशाली अतीत का बारे में कशीदे पढ़े जायेंगे, लेखकों की रचनाओं का जिक्र होगा, पुरस्कारों की चर्चा होगी और फिर, सब कुछ पहले जैसा हो जायेगा। हिंदी बोलने, पढने वालों को पिछड़ा या गंवार समझा जायेगा और अंग्रेजी का प्रभुत्व बरक़रार रहेगा। किसी ने यह सोचने की जहमत क्यूँ नहीं उठाई की क्या हिंदी भाषा इतनी कमजोर है या यह इतने खतरे में है कि इसके लिए एक विशेष दिन कुछ आयोजन किया जाये? ठीक वैसे ही जैसे किसी भूले-बिसरे को हम साल में एक दिन श्रधांजली अर्पित कर के अपनी कर्तव्य की पूर्णाहुति कर लेते हैं। हम यह क्यूँ भूल जाते हैं की हिंदी एकलौती ऐसी भाषा है जिसे आधे से अधिक (संभवतः तीन-चौथाई भी) भारतीय समझते हैं और किसी न किसी रूप में बोलते भी हैं! एक ऐसी भाषा जिसका इतिहास अन्य भाषाओँ की तुलना में कहीं ज्यादा गौरवशाली रहा है, जिस भाषा ने भारत की आजादी की लड़ाई में लोगों को एक-दुसरे से जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, उसे आज अपने आस्तित्व के लिए संघर्ष करना पद रहा है।

कुछ वर्ष पहले जब मैं दिल्ली में था तो मेरे एक मित्र से चर्चा के दौरान पता चला कि वो एक संगोष्ठी में गए थे जहाँ एक विद्वान् 'हिंदी भाषा को कैसे बढ़ावा दें" विषय पर अंग्रेजी में भाषण दे रहे थे। यह सुन कर मुझे कुछ अजीब लगा; ठीक वैसे ही जैसे धुम्रपान से होने वाले नुक्सान विषय पर परिचर्चा हो और लोग उस दौरान सिगरेट पे रहे हों। बात कितनी सही है ये उतना जरुरी नहीं है जितना ये की हिंदी भाषा आज सच में इस कगार पर पहुँच गयी है जहाँ इसका अस्तित्व सिर्फ एतिहासिक अभिलेखों में जकड कर रह गया है।


जहाँ तक वर्तमान-कालीन हिंदी साहित्य की बात करें तो सिर्फ गिने-चुने लेखक ही कुछ अच्छा लिखते हैं और उसे प्रकाशित  पाते हैं। और उससे भी बुरी स्थिति तब होती है जब बात उन रचनाओं के बाजार में बिकने की बात आती है। अंग्रेजी उपन्यासकारों के साथ ऐसा नहीं है; कई बार बहुत ही घटिया कहानियों को भी प्रकाशक और ग्राहक दोनों मिल जाते हैं। हिंदी के चाहने वालो के साथ बुरा ये भी होता है कि जब वो दुकान पर फलां उपन्यास या किताब  जाते हैं तो उन्हें कहा जाता है की ज्यादा खरीददार नहीं होने की वजह से फलां किताब उपलब्ध नहीं हो सकती। अब सिर्फ मंटो की 'गर्भ-बीज', प्रेमचंद की 'गोदान' या दिनकर की 'नील-कुसुम' ही तो नहीं पढ़ा जा सकता हमेशा? कभी-कभी उदय प्रकाश की 'सुनो कारीगर' पढने का भी मन करता है। लेकिन उसके लिए किताबों को बाजार में उपलब्ध होना भी तो जरुरी है! और इसके लिए ये जरुरी है कि बाजार में खरीददार हों। अंततः बात यहाँ आती है की हिंदी भाषा और साहित्य की वर्तमान स्थिति के लिए हम खुद ही जिम्मेवार हैं।

जीवन-यापन और रोजी-रोटी की भागदौड़ में अंग्रेजी भाषा को मिलते महत्व ने हिंदी के लिए परिस्थितियां और भी ख़राब की हैं। सिर्फ हिंदी जानने वालों (या ये कह लीजिये की अछि अंग्रेजी न जानने वालों) के लिए प्रतिष्ठित रोजगार प्राप्त करना एक युद्ध की तरह है जिसमे लड़ने वाले को पता है की उसकी हार सुनिश्चित है। दैनिक जागरण अख़बार में छपे एक पुराने लेख में ये बात  कुछ इस तरह  गयी  थी, "...आज कॉरपोरेट और व्यापार श्रेणी में लोग हिन्दी बोलने वाले को गंवार समझते हैं. एक कंप्यूटर प्रोग्रामर को चाहे कितनी ही अच्छी कोडिंग और प्रोग्रामिंग आती हो लेकिन अगर उसकी अंग्रेजी सही नहीं है तो उसे दोयम दर्जे का माना जाता है..."  इसी लेख में यह भी कहा गया है कि "... हिन्दी की बर्बादी में सबसे अहम रोल हमारी संसद का है. भारत आजाद हुआ तब हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की आवाजें उठी लेकिन इसे यह दर्जा नहीं दिया गया बल्कि इसे मात्र राजभाषा बना दिया गया. राजभाषा अधिनियिम की धारा 3 [3] के तहत यह कहा गया कि सभी सरकारी दस्तावेज और निर्णय अंग्रेजी में लिखे जाएंगे और साथ ही उन्हें हिन्दी में अनुवादित कर दिया जाएगा. जबकि होना यह चाहिए था कि सभी सरकारी आदेश और कानून हिन्दी में ही लिखे जाने चाहिए थे और जरूरत होती तो उन्हें अंग्रेजी में बदला जाता...".

Image credit: CaravanMagazine.in
वैसे यह सही ही कहा गया है की सरकार को यह समझने की जरूरत है हिन्दी भाषा सबको आपस में जोड़ने वाली भाषा है तथा इसका प्रयोग करना हमारा संवैधानिक एवं नैतिक दायित्व भी है. अगर आज हमने हिन्दी को उपेक्षित करना शुरू किया तो कहीं एक दिन ऐसा ना हो कि इसका वजूद ही खत्म हो जाए. समाज में इस बदलाव की जरूरत सर्वप्रथम स्कूलों और शैक्षिक संस्थानों से होनी चाहिए. साथ ही देश की संसद को भी मात्र हिन्दी पखवाड़े में मातृभाषा का सम्मान नहीं बल्कि हर दिन इसे ही व्यवहारिक और कार्यालय की भाषा बनानी चाहिए. सिर्फ इतने भर से दायित्व की पूर्ति नहीं हो जाती की रोज़ एक हिंदी का शब्द (उसके रोमन उच्चारण और अर्थ के साथ) कोने में लगे हुए एक बोर्ड पर लिख दें।

मैं इस बात का भी समर्थन नहीं करता हूँ की अंग्रेजी को नजरंदाज कर के हिंदी को समर्थन दें, लेकिन कम-से-कम हिंदी भाषा, हिंदी साहित्य, हिंदी के लेखकों और रचनाओं को इतनी इज्ज़त और सम्मान (और बाजार!) तो मिले की हम इससे सिर्फ इतिहास की बात समझ कर एक विशेष दिवस मानाने वाले मुद्दे के रूप में ना देख कर, अपनी पहचान और संस्कृति से जोड़कर देखें। और ये भी जरुरी है की माता पिता अपने बच्चों को हिंदी पढना, लिखना और बोलना सीखाने में झिझक महसूस न करें। यह तभी संभव है जब लोग हिंदी भाषा और साहित्य का प्रयोग अधिक-से-अधिक करेंगे, बोलने, लिखने, और पढने में, ना की सरकारी कार्यालय के एक कोने में लगे व्हाइट-बोर्ड पर लिखे हुए एक शब्द  भर को पढ़ कर यह समझने में की हम हिंदी का प्रयोग करते हैं।

खैर, अब हिंदी दिवस के दिन ही सही 'हिंदी दिवस' की बधाइयाँ... हिंदी हम सबकी!

हिंदी अपनाएं, देश का मान बढ़ाएं!